हरे-हरे, धुले धुले.
मरकत मणि से पल्लव!
दृष्टि बांध लेते हैं,
राहत सी देते हैं,
वर्षा की अमृत-सी
बूंदों से चेते हैं,़
पावस में स्नात, धौत,
उजले निखरे पल्लव!
अगणित आकारों के,
आकृतियों के विभिन्न,
सबका है वर्ण हरा,
पर फिर भी भिन्न-भिन्न,
हरित, ललित, सपने-से
हैं घने-घने पल्लव!
झांक रहे कहीं सघन,
कुंज के झरोखे से,
कहीं झूल टहनी से,
बंदनवारों जैसे,
झूमते बयार संग
सर-सर करते पल्लव!
है वितान सा ताने
अंबर की नीलिमा,
नीचे है मंगलमय
द्रुमों की हरीतिमा,
अद्भुत यह धरती का
हरियाली का उत्सव!
जाते जिस ओर नयन
लहराती हरियाली
मृदा भी न रही कहीं,
दूर्वादल से खाली,
चकित हुए लोचन-द्वय,
निरख-निरख यह सौष्ठव!
लगता जैसे वदान्य
प्रकृति हो आई है,
संदेशा शांति, स्वस्ति,
मैत्री का लाई है,
मुग्ध हो रही वसुधा
देख-देख निज वैभव!
मरकत मणि-से पल्लव!
रमा कविता


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