Tuesday, August 10, 2010

                                     पल्लव


                                   हरे-हरे, धुले धुले.


                                   मरकत मणि से पल्लव!


                                  दृष्टि बांध लेते हैं,

राहत सी देते हैं,


वर्षा की अमृत-सी


बूंदों से चेते हैं,़


पावस में स्नात, धौत,


उजले निखरे पल्लव!


अगणित आकारों के,


आकृतियों के विभिन्न,


सबका है वर्ण हरा,


पर फिर भी भिन्न-भिन्न,


हरित, ललित, सपने-से


हैं घने-घने पल्लव!


झांक रहे कहीं सघन,


कुंज के झरोखे से,


कहीं झूल टहनी से,


बंदनवारों जैसे,


झूमते बयार संग


सर-सर करते पल्लव!


है वितान सा ताने


अंबर की नीलिमा,


नीचे है मंगलमय


द्रुमों की हरीतिमा,


अद्भुत यह धरती का


हरियाली का उत्सव!


जाते जिस ओर नयन


लहराती हरियाली


मृदा भी न रही कहीं,


दूर्वादल से खाली,


चकित हुए लोचन-द्वय,


निरख-निरख यह सौष्ठव!


लगता जैसे वदान्य


प्रकृति हो आई है,


संदेशा शांति, स्वस्ति,


मैत्री का लाई है,


मुग्ध हो रही वसुधा


देख-देख निज वैभव!


मरकत मणि-से पल्लव!


रमा कविता

No comments:

Post a Comment